व्यायामः।
व्यायामो नाम शरीरायासजनकं कर्म। शरीरायासं
नाम श्रमजनन्यः शरीरचेष्टाः याः शरीरस्य बलं स्थैर्यं च वर्धयन्ति ताः सर्वाः
व्यायामेति संज्ञया अवगन्तव्याः। आधुनिके काले
यस्मिन् प्रत्येकस्मै प्रातरुत्थानाद् आरभ्य रात्रिनिद्रापर्यन्तं उदरपरिपालनार्थं
बहूनि कार्याणि विद्यन्ते, व्यायामार्थं समयः अल्पः एव प्राप्तुं शक्यः। भवतु अल्पः
एव किन्तु प्रतिदिनं न्यूनातिन्यूनं पञ्चनिमिषस्य समयः अपि पर्याप्तः स तु परमव्यग्राय प्रधानमन्त्रिमहोदयाय अपि लभते एव। अतः
अन्यैः समयाभावस्य कारणं न कथञ्चिदपि दातव्यं व्यायामाकरणाय।
सन्ति च अनेकप्रकाराः व्यायामविशेषाः
ये च कर्तुं सरलाः अल्पकालाभिधेयाश्च। योगोक्तानि आसनानि तेष्वपि सूर्यनमस्कारः सर्वेषां
कृते योग्यः प्रतिभाति। एते च व्यायामविशेषाः कथं अभ्यसनीयाः इत्यस्योत्तरं बहुषु योगासनपुस्तकेषु सरलतया द्रष्टुं
शक्यं, आन्तरजालेऽपि सहजमेव प्राप्यते। प्रतिदिनं स्ववयोनुसृत्य
स्वबलं समीक्ष्य उपलब्धसमयं च वीक्ष्य पञ्च, दश, विंशतिः, पञ्चाशद्, शताधिका वा सूर्यनमस्काराः
कर्तुमुचिताः।
एते च व्यायामप्रकाराः प्रातः काले
एव प्राधान्येन करणीयाः विद्यन्ते। प्रातः निद्रातः उत्थाय मलविसर्जनं कृत्वा, दन्तधावनं
कृत्वा, शरीरं अभ्यङ्गविधिना तैलाक्तं कृत्वा व्यायामः कर्तव्यः सर्वैः। मलविसर्जनसमये
स्वमलपरीक्षणमपि कर्तव्यं । किमर्थं? अजीर्णज्ञानार्थम्। यदि पुरीषभेदः, द्रवमलप्रवृत्तिः,
उदरगौरवम्, दुष्टः उद्गारः एतेषु कानिचन लक्षणानि दृश्यन्ते तर्हि तत् अजीर्णसूचकम्।
अजीर्णावस्थायां व्यायामः न करणीयः। अतः व्यायामात्
प्राक् एतानि लक्षणानि अवश्यमेव परीक्षितव्यानि। येषां कृते प्रातः समयोपलब्धिः नास्त्येव तेषां कृते
सायं व्यायामसमयः उचितः। तैः प्रातर्भोजनपश्चाद् षट् सप्त वा घण्टात्मकं कालं त्यक्त्वा
यदा उदरलाघवं सञ्जायते तदा एव व्यायामः कर्तव्यः।
नित्यव्यायामाभ्यासेन शरीरे लाघवता
आयाति। कर्मसामर्थ्यं च वर्धते । जाठराग्निः
बुभुक्षा पचनक्षमता च वर्धते। अतिरिक्तमेदसः क्षयो भवति। शरीरं दृग्गोचरपुष्टमांसपेशीयुतं
विभक्तं घनं च भवति। शरीरं दुःखसहिष्णुः व्याधिसहिष्णुः व्याधिप्रतिकारक्षमं
भवति। शरीरे धातूनां स्थैर्यम् उपलक्ष्यते। प्रतिदिनचर्यायाः आहारविहाराभ्यां ये दोषाः
मलाः शरीरे जन्यन्ते तेषां क्षयः अपि व्यायामाद् प्रतिदिनं भवितुमर्हति।
व्यायामः दिनचर्यायाः अतिमहत्त्वयुतो
भागः अस्ति। न्यूनातिन्यूनं हेमन्तनाम्नि ऋतौ, शिशिरर्तौ, वसन्तर्तौ च विशेषेण प्रभूतः
व्यायामः कर्तव्यः एव । हेमन्तशिशिरवसन्ताः
संवत्सरे मार्गशीर्ष-पौष-माघ-फाल्गुन-चैत्र-वैशाखाख्येषु मासेषु यदि वा Nov-Dec-Jane-Feb-March-April
इत्येतेषु आङ्ग्लमासेषु विद्यते। शेषेषु मासेषु
मन्दव्यायामः तु आचरणीयः एव।
अत्युत्साहेन अतिव्यायामः कथंचिदपि
न कर्तव्यः। तेन बलारोग्यहानिरेव भविष्यति। अतः सर्वैः प्रतिदिनम् ऋतुं कालं बलं प्रकृतिं
वयः जीर्णाजीर्णतां च अभिसमीक्ष्य उचितः व्यायामः अवश्यमेव विधेयः इति शम्।
Vyāyāma
( Exercise)
Vyāyam
or exercise means that type of body activities which are desirable for
generating body fatigue, body stability and strength of the body. In today’s
fast and fully engaged life style, there may be very short time for performing
vyāyāma. But at least time of 5 minutes should be kept free for doing vyāyāma
and I think it is possible to most engaged person also. So no one should claim
for shortness of time for avoiding vyāyāma.
There
are so many types of bodily activities i.e. vyāyama which are very easy to
perform to everybody within a short period of time. Yogāsana, Sūryanamaskāra
and other so many types of vyāyāma are desirable here. How should these be
performed, is answerable in the books of yogāsana and also on internet search
engines. Illustrated charts containing sūryanamaskāra are easily available in
markets specially in book stores. Thus one should perform at least 5, 10, 20,
50, 100 or even more sūryanamaskārāḥ visualizing own body strength, available
time and age.
These
exercises are to be performed essentially in morning hours only. One should
awake early in the morning preferably in brāhma muhūrta, should go to toilet,
brush the teeth, should have little oil massage i.e. abhyaṇga and then perform
one of the above said vyāyāmāḥ. While defecation, one should observe the stool
for its consistency whether it is loose, semisolid or sticking to toilet pan.
As inconsistent stool, heaviness in abdomen, sore belching are some signs or
symptoms showing state of indigestion in which vyāyāma should be avoided. So
before performing exercise one should examine all these entities. For those who
do not have enough time in morning, evening period is advisable rather than
avoiding it completely. In such situations one should exercise after 6 to 7
hours of morning diet. Remember we have only two timings for meal first in the
morning and second one just after evening. So, there is no such concept of so
called breakfast-lunch-tea time snacks- dinner etc in āyurveda.
Daily
habit of vyāyāma gives lightness to body, increased working capacity, good
appetite and digestion power, decrease in excessive fat, muscular look,
immunity, capacity to bear miseries and stability. It also enables to destruct
doṣāḥ and malāḥ which are increased while performing and eating in accordance
with daily regimen.
Vyāyāma
is important part of daily regimen. At least from hemanta to vasanta seasons
all should perform it thoroughly. In terms of English months it will come from November
to April. Being healthy season one should perform full exercise in this period.
In rest period one should exercise some what less.
One should not do vyāyāma more than
its capacity. It will hamper strength and health only. So vyāyāma should be
performed daily after examining season, time, own body strength, own constituent,
age and state of complete digestion or indigestion.
Concept of constituent will be posted
latter in this blog.
व्यायाम : विधि एवं नियम
शरीर को श्रम दिलाने वाली, बल एवं
स्थैर्य बढाने वाली क्रियाएँ व्यायाम कहलाती हैं। आधुनिक कालमें जहाँ हर व्यक्तिको
प्रातः उठने से रात्रिमें निद्रातक अपने पेट पालने मे ही मग्न रहना क्रमप्राप्त है,
व्यायाम के लिए समय निकाल पाना दुष्प्राप्य हो रहा है। किन्तु जितना मिल सके कम ही
सही, व्यायाम के लिए समय अवश्य निकालना चाहिए।
व्यस्त से व्यस्त प्रधानमन्त्री जैसे व्यक्ति भी पाँच मिनट का समय तो निकाल हि पाते
है। औरो को समय नही है यह कारण नही देना चाहिए।
ऐसे अनेक प्रकार के व्यायाम हैं जिन्हे
अत्यंत सरलता से एवं कम समय में किया जा सकता है। योगशास्त्रमें वर्णित आसन विशेष तथा
सूर्यनमस्कार यह सभी लोगोंके लिए उपयुक्त लगता है। इन योगासनोंकी एवं सूर्यनमस्कार
की विधि बतलाने वाले अनेक किताब उपलब्ध हैं या फिर आन्तरजाल तो है ही। अतः प्रतिदिन
स्वयं का वय, शरीर बल एवं उपलब्ध समय देखकर सबको पाँच, दस, बीस, पचास, सौ या उससे भी
अधिक सूर्यनमस्कार करने चाहिए।
ये सभी व्यायाम प्रधानतः प्रातःकाल
में ही करने चाहिए। सुबह निद्रा से जग कर,
मल विसर्जनोपरान्त दाँत साफ करके, अभ्यंगविधिसे शरीर को तैल लगाकर व्यायाम करना चाहिए।
मल विसर्जन के समय मल का परीक्षण भी अजीर्ण के ज्ञान के लिए करना चाहिए। द्रवमल की
प्रवृत्ति, फैलता हुआ मल, पेट में भारीपन, खट्टी या विचित्र उद्गार ये कुछ अजीर्ण सूचक
लक्षण हैं। अजीर्ण होने पर व्यायाम नही करना चाहिए। जिन महानुभावोंको प्रातः समय उपलब्धही
नही हो सकता उनको चाहिए कि वे दोपहर के भोजन के छह सात घंटे बाद सायं काल में पेट हल्का
होने पर व्यायाम करें।
प्रतिदिन व्यायाम करने से शरीर में
हल्कापन आता है। कार्य करने की शरीर की क्षमता में वृद्धि होती है। जठराग्नि, भूख एव
पचन की क्षमता बढती है। शरीर का अतिरिक्त मेद भी कम होता है। शरीर की माँस पेशियाँ
विभक्त दिखती हैं। दुःख एवं व्याधियोंको सहने की क्षमता एवं व्याधिप्रतिकार क्षमता
में बढोत्तरी होती है। शरीर के धातुओंमे एक स्थैर्य सा आ जाता है। प्रतिदिन के विकृत
आहार एवं विहार के कारण बढे हुएँ दोष भी व्यायाम से कम होते हैं।
व्यायाम यह दिनचर्या का अतिमहत्वपूर्ण
भाग है। कम से कम हेमन्त, शिशिर एवं वसन्त ऋतुओं में तो व्यायाम अवश्य ही करना चाहिए। मार्गशीर्ष से लेकर वैशाख मास तक याने नवम्बर से
लेकर अप्रैल तक यह समय है। इसको छोडकर अन्य महिनों मेभी अल्प मात्रामें व्यायाम करते ही रहना चाहिए।
अति उत्साह से बहोत जादा मात्रा में
व्यायाम कभी नही करे। इससे बल एवं आरोग्य की हानि ही होगी। अतः सबको चाहिए कि वे प्रतिदिन
ऋतु, बल, प्रकृति , वय एवं पूर्व दिन के आहार के पचन या अपचन की अवस्था को देखकर अवश्यही
उचित व्यायाम करें।